सजृन को सार्थक बनाने में दूसरे दिन भी खण्डवा के गौरी कुंज सभागृह में चला चिन्तन-मनन
खंडवा ( 19 दिसम्बर 2013) - सृजन की सार्थकता विषयक संगोष्ठी के आयोजन में आंमत्रित वक्ताओं की वाणी ने सामाजिक मूल्यों के होते ह्यस को जिस अंदाज में व्यक्त किया, उससे यह अवष्य सिद्ध हो गया कि आकाषवाणी का समाज के प्रति और लेखकों को उत्प्रेरित कर, उनकी अभिव्यक्ति को मंच देना वास्तव में कारगर हुआ। दरअसल जन उपयोगी माध्यम ने अपनी सार्थकता का परिचय दे ही दिया। पं0 माखनलाल चतुर्वेदी कि नगरी खण्डवा के गौरी कंुज सभागृह में आकाषवाणी इन्दौर द्वारा दो दिवसीय साहित्यिक संगोष्ठिी का 19 दिसम्बर को दूसरा एवं अंतिम सत्र था । निमाड़ अंचल के वरिष्ठ साहित्यकारों को सुनने के लिए सभागृह में खण्डवा के साहित्य प्रेमी श्रोताओं ने अपनी गरिमामय उपस्थिति दूसरे दिन भी दर्ज कराई। शब्दों के प्रवाह में बहते-बहते साहित्यकारों की बेबाक टिप्पणियों को करतल ध्वनियों से सम्मान भी दिया गया।
संगोष्ठी का आरंभ करते हुए सुनिल चौरे ‘‘उपमन्यु’’ ने कहा रचनाकार जो देखता है , भोगता है, सोचता है और जो समझता है वही अपनी लेखनी में कलमबद्ध करता है । आज की सजृन की सार्थकता में रामायणि के राम के चरित्र की तरह तन-मन-धन त्याग से ही जीवन के हर श्रेत्र के सजृन को हम सार्थक साबित कर सकते है ।
कला और साहित्य हमें अपने आपको व्यक्त करने का अवसर देते हैं और वस्तुतः यहीं सृजन की सार्थकता है । कहा साहित्यकार डा0 नीरज दीक्षित ने उनका मानना है कि सृजन या रचना कर्म एक स्वाभाविक क्रिया है । कुछ लोगों के लिए यह उनके खून में रचा बसा है । श्वसन की तरह ही एक अनिवार्य क्रिया है । वे इसके बिना रह ही नही सकते । इसलिए यह बाद में सोचने का या मेरे विचार में न सोचे जाने का ही विषय है कि साहित्य की सार्थकता है या नहीं । यदि उसकी सार्थकता नहीं होती तो ये शब्द, ये भाषा, ये स्वर, ये साहित्य और सृजन कब के खत्म या विलुप्त हो गये होते लेकिन ऐसा नहीं है । युगों-युगों से इनकी यात्रा जारी है भले ही रूप बदल-बदलकर ही सही ।
वरिष्ठ साहित्यकार राघवेन्द्रसिंह राघव ने संगोष्ठी में अपने विचार रखते हुवे कहा - एक साहित्यकार रचना के समय मानवीय गुणों से परिपूर्ण होता है । चाहे फिर वह कहानी को जन्म दे या कविता को उसकी जो भी रचना होगी वह समाज के लिए हितकारी होगी और उसका सजृन सार्थक होगा ।
संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुऐ रचनाधर्मी प्रमोद त्रिवेदी ‘‘पुष्प’’ने कवि की रचना के माध्यम से कहा - ‘‘अंधकार है वहाँ, जहाँ साहित्य नहीं है,मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।’’
साहित्य समाज का दर्पण है। प्रत्येक देश का साहित्य, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक सभी मूल-प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं। साहित्य में जीवन का प्रभाव होता है। वह जीवन के सुख-दुःख, हास-विलास, आशा-निराशा, उन्नति-अवनति से ओत-प्रोत होता है। जीवन से रहित साहित्य नहीं होता है। साहित्य जीन-जीवन की भावनाओं का प्रकाशन है।
साहित्यकार अषोक गीते ने अपनी बात कुछ इस प्रकार रखी। आज जबकि समस्त देष मे दर स्तर पर अनुषासन की कमी होती जा रही है, वही सृजन इसे यथोचित अनुषासन के नैतिक मूल्यो के पुर्नस्थापन मंे सहायक होगा ही और यही सृजन की सार्थकता है सृजन में भी नये युग के बदलते परिवेष को अभिव्यक्ति देने के महत्वपूर्ण उपक्रम होते है ,तो सृजन को नई बुनावट का संयोजन करना होता है इसी संयोजन की तलाष मे सृजनधर्मी को युग की आहट , उसकी सुगबुगाहट उसमें पूर्ववर्ती विकृतियों को प्रथक कर उसके साथ समरस होना पड़ता है। तभी सृजन अपने सार्थकता को सिद्ध कर पाता है । वस्तुतः परम्परागत सृजन को नये परिवेष , नयी सोच नये बिम्बो ,नये प्रतीको ,नई षैली ,नई संप्रेषणियता एवं नई दिषा को निर्धारित करने हेतु उसमंे बदलाव बेहद जरूरी है ,क्योकि आज आँकलन के मानदण्ड बदल गये है आकलन की नई जमीन बनायी गई है ऐसे मे सृजन के नये आयाम भी गढ़े जा रहे हैे। सृजन में अतिरोक आनंद होता है वह युग को बदलने की षक्ति रखता है ।
संगोष्ठि का संचालन कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार डॉ0 प्रतापराव कदम ने कहा समय और समाज, दोनों उठाये गये प्रष्नों का , चुनोैतियों का जो साहित्य सामना कर सकता है वही सार्थक है । जिसमें हमारे समाज की आहट न हो , उसकी सार्थकता पर संदेह किया जा सकता है । संत कबीर , संत तुलसीदासजी और अमीर खुसरों से लगाकर आज तक यही बात साबित हुई है । कार्यक्रम के अंत में आकाषवाणी इन्दौर की कार्यक्रम प्रमुख डॉ0 रेखा वासुदेव ने कहा - आकाषवाणी इन्दौर का ये आयोजन तो अभी शुरूआत है। आकाषवाणी का प्रयास होगा कि वह अपनी जिम्मेदारी को इसी दक्षता से निबाहती रहे। ऐसे प्रयास एक व्यक्ति के नहीं, सम्पूर्ण टीम के होते है।
विचारों को जनहित में मंच मिलता रहें और आकाषवाणी कि गूंज सदैव दिग - दिगन्त में फैलती रहे, यही प्रयास रहेगा इस लोक प्रसारण सेवा का।
व्यवसायिकता का कितना भी बड़ा संजाल चारों ओर फैले लेकिन वास्तविकता तो यही है, कि भंवर में स्थिर, शांत और निर्मल सिर्फ आकाषवाणी है। खण्डवा में आयोजित इस सफल आयोजन के लिए मैं आकाषवााणी परिवार की ओर से आप सभी का आभार प्रकट करती हॅू।
96/2013/1389/वर्मा
खंडवा ( 19 दिसम्बर 2013) - सृजन की सार्थकता विषयक संगोष्ठी के आयोजन में आंमत्रित वक्ताओं की वाणी ने सामाजिक मूल्यों के होते ह्यस को जिस अंदाज में व्यक्त किया, उससे यह अवष्य सिद्ध हो गया कि आकाषवाणी का समाज के प्रति और लेखकों को उत्प्रेरित कर, उनकी अभिव्यक्ति को मंच देना वास्तव में कारगर हुआ। दरअसल जन उपयोगी माध्यम ने अपनी सार्थकता का परिचय दे ही दिया। पं0 माखनलाल चतुर्वेदी कि नगरी खण्डवा के गौरी कंुज सभागृह में आकाषवाणी इन्दौर द्वारा दो दिवसीय साहित्यिक संगोष्ठिी का 19 दिसम्बर को दूसरा एवं अंतिम सत्र था । निमाड़ अंचल के वरिष्ठ साहित्यकारों को सुनने के लिए सभागृह में खण्डवा के साहित्य प्रेमी श्रोताओं ने अपनी गरिमामय उपस्थिति दूसरे दिन भी दर्ज कराई। शब्दों के प्रवाह में बहते-बहते साहित्यकारों की बेबाक टिप्पणियों को करतल ध्वनियों से सम्मान भी दिया गया।
संगोष्ठी का आरंभ करते हुए सुनिल चौरे ‘‘उपमन्यु’’ ने कहा रचनाकार जो देखता है , भोगता है, सोचता है और जो समझता है वही अपनी लेखनी में कलमबद्ध करता है । आज की सजृन की सार्थकता में रामायणि के राम के चरित्र की तरह तन-मन-धन त्याग से ही जीवन के हर श्रेत्र के सजृन को हम सार्थक साबित कर सकते है ।
कला और साहित्य हमें अपने आपको व्यक्त करने का अवसर देते हैं और वस्तुतः यहीं सृजन की सार्थकता है । कहा साहित्यकार डा0 नीरज दीक्षित ने उनका मानना है कि सृजन या रचना कर्म एक स्वाभाविक क्रिया है । कुछ लोगों के लिए यह उनके खून में रचा बसा है । श्वसन की तरह ही एक अनिवार्य क्रिया है । वे इसके बिना रह ही नही सकते । इसलिए यह बाद में सोचने का या मेरे विचार में न सोचे जाने का ही विषय है कि साहित्य की सार्थकता है या नहीं । यदि उसकी सार्थकता नहीं होती तो ये शब्द, ये भाषा, ये स्वर, ये साहित्य और सृजन कब के खत्म या विलुप्त हो गये होते लेकिन ऐसा नहीं है । युगों-युगों से इनकी यात्रा जारी है भले ही रूप बदल-बदलकर ही सही ।
वरिष्ठ साहित्यकार राघवेन्द्रसिंह राघव ने संगोष्ठी में अपने विचार रखते हुवे कहा - एक साहित्यकार रचना के समय मानवीय गुणों से परिपूर्ण होता है । चाहे फिर वह कहानी को जन्म दे या कविता को उसकी जो भी रचना होगी वह समाज के लिए हितकारी होगी और उसका सजृन सार्थक होगा ।
संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुऐ रचनाधर्मी प्रमोद त्रिवेदी ‘‘पुष्प’’ने कवि की रचना के माध्यम से कहा - ‘‘अंधकार है वहाँ, जहाँ साहित्य नहीं है,मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।’’
साहित्य समाज का दर्पण है। प्रत्येक देश का साहित्य, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक सभी मूल-प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं। साहित्य में जीवन का प्रभाव होता है। वह जीवन के सुख-दुःख, हास-विलास, आशा-निराशा, उन्नति-अवनति से ओत-प्रोत होता है। जीवन से रहित साहित्य नहीं होता है। साहित्य जीन-जीवन की भावनाओं का प्रकाशन है।
साहित्यकार अषोक गीते ने अपनी बात कुछ इस प्रकार रखी। आज जबकि समस्त देष मे दर स्तर पर अनुषासन की कमी होती जा रही है, वही सृजन इसे यथोचित अनुषासन के नैतिक मूल्यो के पुर्नस्थापन मंे सहायक होगा ही और यही सृजन की सार्थकता है सृजन में भी नये युग के बदलते परिवेष को अभिव्यक्ति देने के महत्वपूर्ण उपक्रम होते है ,तो सृजन को नई बुनावट का संयोजन करना होता है इसी संयोजन की तलाष मे सृजनधर्मी को युग की आहट , उसकी सुगबुगाहट उसमें पूर्ववर्ती विकृतियों को प्रथक कर उसके साथ समरस होना पड़ता है। तभी सृजन अपने सार्थकता को सिद्ध कर पाता है । वस्तुतः परम्परागत सृजन को नये परिवेष , नयी सोच नये बिम्बो ,नये प्रतीको ,नई षैली ,नई संप्रेषणियता एवं नई दिषा को निर्धारित करने हेतु उसमंे बदलाव बेहद जरूरी है ,क्योकि आज आँकलन के मानदण्ड बदल गये है आकलन की नई जमीन बनायी गई है ऐसे मे सृजन के नये आयाम भी गढ़े जा रहे हैे। सृजन में अतिरोक आनंद होता है वह युग को बदलने की षक्ति रखता है ।
संगोष्ठि का संचालन कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार डॉ0 प्रतापराव कदम ने कहा समय और समाज, दोनों उठाये गये प्रष्नों का , चुनोैतियों का जो साहित्य सामना कर सकता है वही सार्थक है । जिसमें हमारे समाज की आहट न हो , उसकी सार्थकता पर संदेह किया जा सकता है । संत कबीर , संत तुलसीदासजी और अमीर खुसरों से लगाकर आज तक यही बात साबित हुई है । कार्यक्रम के अंत में आकाषवाणी इन्दौर की कार्यक्रम प्रमुख डॉ0 रेखा वासुदेव ने कहा - आकाषवाणी इन्दौर का ये आयोजन तो अभी शुरूआत है। आकाषवाणी का प्रयास होगा कि वह अपनी जिम्मेदारी को इसी दक्षता से निबाहती रहे। ऐसे प्रयास एक व्यक्ति के नहीं, सम्पूर्ण टीम के होते है।
विचारों को जनहित में मंच मिलता रहें और आकाषवाणी कि गूंज सदैव दिग - दिगन्त में फैलती रहे, यही प्रयास रहेगा इस लोक प्रसारण सेवा का।
व्यवसायिकता का कितना भी बड़ा संजाल चारों ओर फैले लेकिन वास्तविकता तो यही है, कि भंवर में स्थिर, शांत और निर्मल सिर्फ आकाषवाणी है। खण्डवा में आयोजित इस सफल आयोजन के लिए मैं आकाषवााणी परिवार की ओर से आप सभी का आभार प्रकट करती हॅू।
96/2013/1389/वर्मा
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