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Thursday, 10 September 2015

नर्मदा नदी के आसपास जैव विविधता में आ रहे बदलावों पर हुई चर्चा

नर्मदा नदी के आसपास जैव विविधता में आ रहे बदलावों पर हुई चर्चा
वन विभाग द्वारा एक दिवसीय कार्यषाला आयोजित



खण्डवा 10 सितम्बर, 2015 - मध्य नर्मदा उप बेसिन में नवनिर्मित जलाषयों के कारण वन्य जैव विविधता में आ रहे बदलावों में जनभागीदारी से अभिलेखीकरण विषय पर एक दिवसीय कार्यषाला आज मुख्य वन संरक्षक कार्यालय वन वृत्त खंडवा के सभागार में आयोजित की गई। जिसमें कार्यषाला के प्रस्तावना तथा आयोजन के उद्देष्य के विषय में मुख्य वन संरक्षक डॉ. पंकज श्रीवास्तव ने विस्तार से जानकरी दी। इससे पूर्व कार्यषाला का शुभारंभ मॉं सरस्वती के चित्र पर माल्यापर्ण कर एवं दीप प्रज्जवलित कर किया गया। कार्यषाला में वन संरक्षक श्री ए.के.भूगांवकर एवं मण्डलाधिकारी श्री पी.जी.फूलझेले ने नर्मदा नदी के आसपास के क्षेत्र में जैव विविधता में आ रहे बदलावों की जानकारी दी। 
कार्यषाला में धमनोद के प्रोफेसर डॉ. शैलेन्द्र शर्मा ने संबोधित करते हुए कहा कि किसी भी जल स्त्रोत में पाए जाने वाले कीड़े मकोड़ो को देखकर पता लगाया जा सकता है कि वह पानी पीने योग्य है अथवा नही क्योंकि कुछ कीड़े ऐसे होते है जो केवल स्वच्छ जल में ही पाए जाते है। जबकि कुछ कीड़े मकोड़े केवल गंदे पानी में पाए जाते है। जिस पानी में स्टोन फ्लाई अथवा मेफ्लाई नामक कीड़े पाए जाए व पानी शुद्ध होता है जबकि जिस पानी में शंख, जोंक, व शीप पाई जाए पानी पीने योग्य नही होता है। उन्होंने नदी स्वास्थ्य पत्रक तैयार करने के बारे में भी जानकारी दी। इंदौर के पक्षी विषेषज्ञ श्री अजय गड़ीकर ने कार्यषाला में बताया कि नर्मदा नदी पहले केवल बहने वाली नदी थी, लेकिन अब जगह-जगह पर बड़े बांध बन जाने से नर्मदा मंे कही पानी स्थिर है तो कही बहता हुआ। नर्मदा का पानी कही गहरा है तो कही उथला। उन्होंने कहा कि उथले जल में अलग पक्षी पाए जाते है जबकि गहरे जल में पक्षीयों की अन्य प्रजातियॉं पाई जाती है। श्री गड़ीकर ने कार्यषाला में बताया कि नर्मदा तट पर घास के मैदानों व खेतों में पक्षीयों की अनेकों प्रजातियॉं पाई जाती है। शीत ऋतु में प्रवासी पक्षीयों के आ जाने से यह प्रजातियॉं और बड़ जाती है। 
बरकतुल्ला विष्व विद्यालय भोपाल की डॉ. श्रीपर्णा सक्सेना ने कार्यषाला में नर्मदा नदी के आसपास पाई जाने वाली मछलीयों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि मछलीयों की अनेक प्रजातियॉं नर्मदा नदी में पाई जाती है, जो प्रजातियॉं बहते जल में पाई जाती है वे नर्मदा के स्थिर जल में नही पाई जाती है। पानी की उपरी सतह पर अलग प्रजाति की मछलीयॉं पाई जाती है तो मध्यम सतह पर दूसरी प्रजातियॉं तथा निचली सतह पर अन्य प्रजातियों की मछलीयॉं पाई जाती है। इसी तरह पानी की उपरी सतह पर जो वनस्पति पाया जाता है, वह निचली सतह पर नही पाया जाता है। डॉ. सक्सेना ने बताया कि जल प्रदूषण से जैव विविधता को बहुत नुकसान होता है प्रदूषित पानी में बहुत कम प्रजातियो की मछलीयॉं पाई जाती है, क्योंकि अधिकांष प्रजातियॉं प्रदूषित जल में जीवित नही रह पाती। उन्होंने कहा कि जिस पानी में अधिक प्रजातियों की मछलीयॉं पाई जायेगी वह पानी उतना ही शुद्ध माना जायेगा। उन्होंने कहा कि 1941 में होषंगाबाद के आसपास मछलीयों की 40 प्रजातियॉं पाई जाती थी, जबकि 1967 में केवल 7 तथा 1991 में 46 प्रजातियॉं होषंगाबाद के आसपास नर्मदा नदी में देखी गई।
जीवाष्म विषेषज्ञ श्री विषाल वर्मा ने जैव विविधता और जीवाष्म विषय पर विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि जीवाष्म केवल परतदार चट्टानों में पाया जाता है। आरटीजन एग्रोटेक लिमिटेड के प्रबंधन संचालक श्री देवमुखर्जी ने बॉंस उत्पादन विषय पर अपनी प्रस्तुति दी। उन्होंने कहा कि पर्यावरण संरक्षण के लिए बॉंस का पेड़ ठीक उसी तरह कार्य करता है जैसा कि मानव शरीर में किडनी करती है। उन्होंने कहा कि बॉंस के पेड़ से आय तो प्राप्त होती ही है साथ ही पर्यावरण शुद्ध भी रहता है। उन्होंने कहा कि मिट्टी के कटाव रोकने के लिए बॉंस अत्यन्त उपयोगी पौधा है। कार्यषाला में ग्लोबल ग्रीन संस्था इलाहबाद के डॉ. मनोज श्रीवास्तव, खण्डवा कॉलेज की वनस्पति शास्त्र की प्रो. श्रीमती कुमुद दुबे ने भी जैव विविधता के बारे में भी अपने विचार रखे।

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